मॉडल प्रिया के मौत मामले में नया मोड़: डायरी में लिखा था-‘आई एम द बेस्ट..मैं बहुत जल्द अमीर बनने वाली हूं’

आई एम द बेस्ट

पुलिस के हाथ एक डायरी लगी है जिसमें प्रिया ने लिखा था कि ‘, मैं बहुत जल्द अमीर बनने वाली हूं।’ हालांकि उसने यह सब कब लिखा था ये पता नहीं चल पाया है। लेकिन इससे साफ है कि वह अपने भविष्य को लेकर काफी आशान्वित थी।

ग्रेटर नोएडा वेस्ट की पैरामाउंट इमोशंस सोसाइटी में 14वीं मंजिल से गिरकर मुंबई की मॉडल प्रिया की मौत के मामले में परिजनों ने पुलिस को कोई शिकायत नहीं दी है।

वहीं पुलिस के हाथ एक डायरी लगी है जिसमें प्रिया ने लिखा था कि ‘आई एम द बेस्ट, मैं बहुत जल्द अमीर बनने वाली हूं।’ हालांकि उसने यह सब कब लिखा था ये पता नहीं चल पाया है। लेकिन इससे साफ है कि वह अपने भविष्य को लेकर काफी आशान्वित थी।

जानकारी के अनुसार मुंबई से आए मित्र के लौटने पर प्रिया ने उसे वापस बुलाने के लिए कई बार फोन मिलाया था लेकिन उसने कॉल रिसीव नहीं की। इससे प्रिया काफी परेशान हो गई थी। बता दें कि पैरामाउंट इमोशंस सोसाइटी में मुंबई में मॉडलिंग करने वाली प्रिया उर्फ भावना गौतम (24) की मौत हो गई थी।

प्रिया मूल रूप से दिल्ली मयूर विहार फेस-3 की रहने वाली थी। वह सोसाइटी में रहने वाली अपनी बहन प्रियंका और उनके पति के घर आई थी। इसी दौरान प्रिया से मिलने मुंबई से उसका एक मित्र भी आया था। लेकिन प्रिया का उसके दोस्त को इस तरह बुलाना परिजनों को पसंद नहीं आया था। उन्होंने प्रिया को डांट दिया था। इस पर प्रिया का दोस्त वापस लौट गया था। प्रिया उसे बुलाने का प्रयास कर रही थी।

एसीपी योगेंद्र सिंह ने बताया कि मामले में परिजनों ने देर रात कोई शिकायत नहीं दी है। प्राथमिक जांच में मॉडल के खुदकुशी करने की बात सामने आई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार मॉडल का एक पुरुष मित्र मुंबई से आया था उसको लेकर परिजनों ने इसे डांटा था, जिसके बाद पुरुष मित्र वापस लौट गया था और यह नाराज हो गई थी। प्रिया को समझाने के लिए उसकी मां भी आई थी।

बिहार: सिर्फ 4 घंटे की बारिश ने खोली सुशासन की पोल, डिप्टी सीएम के घर घुसा पानी, विधानसभा परिसर में भी जलभराव

Bihar Rain

बिहार में बारिश ने लोगों की मुसीबत बढ़ा दी है। बिहार की राजधानी पटना में शुक्रवार की रात हुई बारिश आफत का सबब बन गई। महच चार घंटे की बारिश के बाद पूरे शहर में हर तरफ पानी ही पानी नजर आने लगा। विधानसभा परिसर में करीबन डेढ़ से दो फीट तक पानी जमा है। वहीं बिहार की डिप्टी सीएम और आपदा प्रबंधन मंत्री रेणु देवी के आवास में भी पानी घुस गया। शहर के कई अन्य इलाकों में भी सड़कों पर नदी-नालों सा नजारा नजर आया।

बिहार की उप मुख्यमंत्री और आपदा प्रबंधन मंत्री रेणु देवी के आवास पर भी 25 जून की रात हुई भारी बारिश से आपदा जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है। रेणु देवी के आवास पर भी तकरीबन डेढ़ फीट तक पानी भरा है। विधानसभा परिसर और डिप्टी सीएम के आवास के अलावा पटना का अस्पताल और कई अन्य इलाके भी बारिश के पानी के कारण टापू में तब्दील हो चुके हैं। शहर के कंकड़बाग, अशोकनगर, राजवंशीनगर, बेउर, चिरैयाटांड पुल के आसपास के इलाकों और मीठापुर बस स्टैंड व उसके आसपास भी जलजमाव हो गया है।

बता दें कि पटना को बारिश से निजात अभी मिलती नहीं दिख रही है। मौसम विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने मानसून के दौरान इस तरह की बारिश को आम बताया। मौसम वैज्ञानिकों ने अगले 24 घंटे में पटना और प्रदेश के अन्य इलाकों में भारी बारिश का अनुमान व्यक्त किया है। मौसम वैज्ञानिकों ने येलो और ऑरेंज अलर्ट जारी कर दिया है। फिलहाल, लोगों को बारिश से निजात मिलती नहीं नजर आ रही।

किशोर पर लॉकडाउन तोड़ने का आरोप लगा डंडे से पीटते हुए ले जाया गया थाने, मौत

त्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में घर के बाहर सब्जी बेच रहे किशोर की लॉकडाउन के उल्लंघन के आरोप में पुलिस की कथित पिटाई और प्रताड़ना से मौत हो गई। इस मामले में आरोपी आरक्षी को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया और एक होमगार्ड की सेवा समाप्त कर दी गई है। घटना उन्नाव जिले के बांगरमऊ कोतवाली क्षेत्र के अंतर्गत कस्बे के मोहल्ला भटपुरी इलाके में हुई जहां 17 वर्षीय किशोर फैसल घर के बाहर सब्जी बेच रहा था। आरोप के अनुसार, कस्बा चौकी पुलिस के सिपाही ने किशोर को पकड़ लिया और लॉकडाउन के उल्लंघन का आरोप लगाकर उसे डंडे से पीटते हुए थाने ले गया, जहां किशोर की मौत हो गई।

पुलिस की कार्रवाई से आक्रोशित स्थानीय लोगों ने दोषियों के खिलाफ कार्रवाई, मुआवजा व पीड़ित परिवार को सरकारी नौकरी की मांग को लेकर लखनऊ रोड क्रॉसिंग पर जाम लगा दिया। पुलिस की ओर से जारी बयान में बताया गया कि फैसल की मृत्यु के मामले में आरोपी आरक्षी विजय चौधरी को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया है तथा होमगार्ड सत्यप्रकाश को सेवा से मुक्त कर दिया गया है, साथ ही आरोपी पुलिस कर्मियों के विरुद्ध अभियोग पंजीकृत करके विवेचना की जाएगी। पुलिस के उच्‍चाधिकारी मौके पर पहुंच गये हैं।

कोविड बर्डेन शेयरिंग फॉर्मूले से लगी पूंजी, टीकाकरण अभियान की सफलता की कुंजी।

विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड-19 से निजात पाने के लिये दुनिया के सभी लोगों का टीकाकरण होना जरूरी है। अगर दुनिया का एक भी हिस्‍सा टीकाकरण से महरूम रहा तो पूरी दुनिया में नये तरीके के वायरस का खतरा मंडराने लगेगा। गरीब तथा विकासशील देशों में सभी को समान रूप से टीका मुहैया कराने के मुश्किल काम को करने के लिये एक ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ बनाया जाना चाहिये। इस बारे में ठोस कदम उठाने के लिये आगामी 11 जून को ब्रिटेन में आयोजित होने जा रही जी7 शिखर बैठक एक महत्‍वपूर्ण मौका है।

इस सिलसिले में विस्‍तृत विचार-विमर्श के लिये एक्सपर्ट्स का   एक वेबिनार आयोजित किया गया, जिसमें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन, क्‍लाइमेट एक्‍शन नेटवर्क इंटरनेशनल की अधिशासी निदेशक तसनीम एसप, डब्‍ल्‍यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर और विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन में पब्लिक हेल्‍थ, एनवायरमेंट एण्‍ड सोशल डेटरिमेंट्स ऑफ हेल्‍थ डिपार्टमेंट की निदेशक डॉक्‍टर मारिया नीरा ने हिस्‍सा लिया।

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि मौजूदा वक्‍त दुनिया के अमीर देशों के नैतिक मूल्‍यों की परीक्षा है। अमीर देशों ने जिस तरह से महामारी से निपटा है उससे यह भी पता लगता है कि वे किस तरह से जलवायु संकट से भी निपटेंगे। जी7 देश महामारी को लेकर जो विचार व्यक्त करेंगे उसे अन्य प्रकार के संकटों, खासतौर पर जलवायु से संबंधित संकट से अलग करके नहीं देखा जा सकता। महामारी के इस दौर में जलवायु संकट पर और भी ज्यादा बल दिए जाने की जरूरत है क्योंकि अगर आप जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करते हैं तो इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संबंधी लाभ पैदा होंगे।

आगामी 11 जून को ब्रिटेन, अमेरिका, यूरो‍पीय संघ, जापान और कनाडा के नेता तथा दक्षिण कोरिया, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्‍ट्रेलिया के राष्‍ट्राध्‍यक्ष ब्रिटेन के कॉर्नवाल में आयोजित होने वाली जी7 की बैठक में शामिल होंगे। इस बैठक के दौरान जी7 देशों पर विकासशील देशों में कोविड टीकाकरण कार्य में तेजी लाने और जलवायु सम्‍बन्‍धी नयी वित्‍तीय संकल्‍पबद्धताओं पर राजी होने का दबाव होगा। अगर विकासशील देशों तक कोविड का टीका पहुंचाने और नये वित्‍तपोषण के काम में तेजी नहीं लायी गयी तो ब्रिटेन में आयोजित होने वाली सीओपी26 शिखर बैठक के सामने नयी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। उस स्थिति में विकासशील देशों के प्रतिनिधि इस बैठक में शामिल नहीं हो सकेंगे और देश जलवायु से सम्‍बन्धित अधिक मुश्किल योजनाएं पेश नहीं कर पायेंगे।

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने इस मौके पर गरीब और विकासशील देशों में टीकाकरण सुनिश्चित करने के लिये एक सुगठित ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ तैयार करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्‍होंने कहा ‘‘वर्ष 2021 बढ़े हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग का वर्ष है। हम गरीबी, अन्याय, खराब स्वास्थ्य, प्रदूषण और पर्यावरण अपघटन जैसी समस्याओं से मिलजुल कर लड़ रहे हैं और हम सभी लोग मिलकर सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। कोविड-19 की वजह से हर व्यक्ति डरा हुआ है शुरुआती बिंदु यह है कि इस बीमारी का उन्मूलन कैसे किया जाए इसके लिए वैक्सीन सबसे बड़ा माध्यम है। मेरा मानना है कि सिर्फ ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ ही एक ही रास्ता है जो वैक्सीनेशन के लिए सतत निवेश ला सकता है। इस फार्मूला से जमा होने वाली रकम को गरीब देशों में स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण में खर्च किया जाना चाहिए ताकि इन मुल्कों के लोगों का टीकाकरण किया जा सके। हमें महामारी की तैयारी के लिए जरूरी ढांचे के निर्माण के लिए हर साल 10 बिलियन डॉलर खर्च करने की जरूरत है।’’

उन्‍होंने पूरी दुनिया के लोगों तक वैक्‍सीन पहुंचाने के लिये टीके से जुड़े पेटेंट को अस्‍थायी तौर पर खत्‍म करने की पैरोकारी करते हुए कहा ‘‘मैं उन सभी लोगों का समर्थन करता हूं जो वैक्सीन को उससे जुड़े पेटेंट से अस्थाई तौर पर मुक्त करने का आग्रह कर रहे हैं। इससे अन्य पक्षों को भी वैक्सीन का उत्पादन करने के लाइसेंस मिल सकेंगे। ऐसा होने से जो वैक्सीन आज दुनिया के किसी एक ही हिस्से में बनती है वह कल दुनिया के सभी हिस्सों में बनाई जा सकेगी। इसके साथ ही में वैक्सीन के उत्पादन और उसके वितरण में व्याप्त खामियों को दूर करने की भी वकालत करता हूं। हम जानते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन की 50-50 प्रतिशत आबादी को वैक्सीन लगाई जा चुकी है लेकिन अफ्रीका में यह आंकड़ा सिर्फ 1% है। मैं महसूस करता हूं कि दुनिया वैक्सीनेटेड अमीर और अनवैक्सीनेटेड गरीब में बंटने को तैयार है।’’
ब्राउन ने कहा कि अफ्रीका और एशिया में सबसे ज्यादा लोग जोखिम के दायरे में हैं। इन महाद्वीपों में स्वास्थ्यकर्मी तक वैक्‍सीन से महरूम हैं। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि अमीर देश अपनी स्वार्थपरता छोड़ें और गरीब देशों की मदद करें। इसके लिए समानता पूर्ण भार वितरण का फार्मूला तैयार किया जाए जहां वे अपनी सर्वाधिक क्षमता के मुताबिक कीमत चुकाएं। क्योंकि कोविड-19 लगातार फैल रहा है और लगातार अपना रूप बदल रहा है इसकी वजह से वे लोग भी खतरे के दायरे में हैं जिन्हें वैक्सीन लगाई जा चुकी है। इससे जाहिर है कि अगर किसी एक को चोट लगती है तो उसका दर्द सभी को होगा। अगर किसी एक स्थान पर अन्याय होता है तो इससे सभी स्थानों पर नाइंसाफी होने का खतरा पैदा होता है। मेरा मानना है कि दान का कार्य घर से ही शुरू होता है। जॉन एफ कैनेडी के शब्दों में अगर एक मुक्त समाज किसी गरीब की मदद नहीं कर सकता तो वह किसी काम का नहीं है।

उन्‍होंने कहा कि बर्डन शेयरिंग फार्मूला में हर देश की आय संपदा और डिफरेंशियल बेनिफिट और विश्व अर्थव्यवस्था की री ओपनिंग से मिलने वाले प्रत्येक लाभ को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस फार्मूला के तहत अमेरिका और यूरोप 27% का योगदान करेंगे। ब्रिटेन 5%, जापान 6% और जी20 के सदस्य अन्य देश बाकी का योगदान करेंगे। यह सिर्फ दान की ही एक प्रक्रिया नहीं होगी बल्कि यह अपने बचाव का भी एक रास्ता होगा क्योंकि गरीब देश जितने ज्यादा लंबे वक्त तक महामारी से घिरे रहेंगे, उतने ही समय तक यह महामारी अपने पैर पसारना जारी रखेगी और अमीर तथा गरीब सभी के लिए खतरा बना रहेगा। यह सही है की वैक्सीन बनाने में अरबों डॉलर खर्च होंगे लेकिन लेकिन उनसे जुड़े संपूर्ण फायदे को देखें तो यह कई ट्रिलियन का होगा।

क्‍लाइमेट एक्‍शन नेटवर्क इंटरनेशनल की अधिशासी निदेशक तसनीम एसप ने कोविड-19 महामारी से निपटने के लिये एक समानतापूर्ण रवैया अपनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि जी7 में दुनिया के सात सबसे धनी देश इस सबसे मुश्किल वक्त में बैठक करेंगे। पूरी दुनिया ने वर्ष 2020 को महामारी के साथ गुजारा लेकिन वर्ष 2021 में पिछले साल की मुसीबतों को काफी बढ़ा दिया है। वर्ष 2021 में लोगों के मुसीबत से निपटने के जीवट की परीक्षा को और भी सख्त कर दिया है। यह स्पष्ट है और जैसा कि गार्डन ब्राउन ने भी अपने बयान में कहा है कि हमें इस महामारी से निपटने के लिए एक समानता पूर्ण रवैया अपनाना होगा।

उन्‍होंने जलवायु संकट को भी जेहन में रखने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘मेरा मानना है कि अमीर देशों ने जिस तरह से महामारी से निपटा है उससे यह भी पता लगता है कि वे किस तरह से जलवायु संकट से भी निपटेंगे। जी7 देश महामारी को लेकर जो विचार व्यक्त करेंगे उसे अन्य प्रकार के संकटों खासतौर पर जलवायु से संबंधित संकट से अलग नहीं किया जा सकता। हम सभी जानते हैं और पूरी दुनिया देख भी रही है कि भारत खासतौर पर कोविड-19 महामारी के दूसरे दौर में सबसे दुखद और अप्रत्याशित रूप से विध्वंसक रूप का सामना कर रहा है। इसके अलावा भारत को साइक्लोन ताऊते के रूप में एक और मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। आप में से बहुत से लोगों ने इस चक्रवाती तूफान की वजह से मची तबाही की खबरें और तस्वीरें देखी होंगी। इसकी वजह से कोविड-19 महामारी से उत्पन्न मुसीबत में इजाफा हो गया है। कई तरफ से आ रही इस मुसीबत का असर भारत की स्वास्थ्य सेवाओं आपदा प्रबंधन सेवाओं पर पड़ रहा है जिसकी कीमत सरकार और देश के नागरिकों को चुकानी पड़ेगी। जी7 देशों के सामने इन मुद्दों का हल निकालने की बहुत बड़ी चुनौती होगी।’’

तसनीम ने कहा ‘‘मेरी समझ से गॉर्डन ब्राउन ने एक तात्कालिक आवश्यकता की तरफ इशारा किया है कि अगर कोई एक भी व्यक्ति असुरक्षित है तो इसका मतलब है कि हर कोई असुरक्षित है। जी7 देशों में इस तरह का नेतृत्‍व दिखाने की जरूरत है। हमें वैश्विक एकजुटता और वैश्विक सहयोग की भावना को सबसे मजबूत तरीके से जाहिर करना होगा।’’
तसनीम ने आईईए द्वारा जारी ताजा नेटजीरो रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा इस रिपोर्ट में इस बात पर खास जोर दिया गया है कि हमें अक्षय ऊर्जा पर निवेश पर विशेष जोर देना होगा। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होगी। इसके लिए वैश्विक एकजुटता और सहयोग की भावना मुख्य केंद्र में होनी चाहिए।

उन्होंने कोविड टीकाकरण को लेकर उठाए गए बिंदु का जिक्र करते हुए कहा कि महामारी से लड़ने के लिए टीके की समानतापूर्ण उपलब्धता बेहद जरूरी है और इस चुनौती से निपटने के लिए विकसित देशों को अपने क्लाइमेट फाइनेंस में लगातार तेजी से इजाफा करना चाहिए। देशों को पुरानी संकल्पबद्धताओं पर अमल के साथ-साथ नए संकल्प प्रस्तुत करने चाहिए। अगर विकासशील देशों को वैक्सीन को लेकर फौरन मदद नहीं मिली और उसका समानता पूर्ण वितरण नहीं हुआ तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को ग्लासगो में किसी भी तरह के समझौते की संभावना को भूल जाना चाहिए। जॉनसन के पास साथ मिलकर कदम बढ़ाने के लिए तीन हफ्ते का समय है। घड़ी का कांटा तेजी से भाग रहा है। हम इस मुश्किल वक्त में एक साहसिक, संवेदनशील और नैतिकता पूर्ण नेतृत्व की तरफ देख रहे हैं।

इस सवाल पर कि क्या जी7 बैठक में शामिल होने जा रहे प्रतिनिधियों को वैक्सीन लगवा कर जाना चाहिए, उन्होंने कहा कि यह नैतिक रूप से सही नहीं होगा क्योंकि वैक्सीन लगवाने की एक निर्धारित प्रक्रिया है और अगर इसमें अतिरिक्त लाभ लेने की कोशिश की जाएगी तो यह बिल्‍कुल अनुचित होगा।

डब्‍ल्‍यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर ने कहा कि इस वक्‍त दो चीजें बहुत महत्‍वपूर्ण हैं। पहली, क्लाइमेट फाइनेंस की तात्कालिकता और समानता पूर्ण टीकाकरण। दूसरी चीज यह है कि वर्तमान समय हमारे मूल्यों की परीक्षा की घड़ी है कि हम एक खुशहाल दुनिया के निर्माण के प्रति कितने गंभीर हैं। एक ताजा विश्लेषण में यह बात जाहिर हुई है कि पिछले साल भारत में 7.5 करोड़ और नागरिक गरीबी की गर्त में चले गए। यह भारत में आई कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से पहले की बात है। कुछ मीडिया मंचों की रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि भारत के गांवों में लोगों को किसी सब्जी या दाल के बगैर चावल में नमक मिलाकर खाने को मजबूर होना पड़ रहा है। इसी तरह हम वैक्सीन के मामले में भी बड़ी अनोखी विषमता का अनुभव कर रहे हैं। जहां अनेक देशों खासकर अफ्रीकी मुल्कों में स्वास्थ्य कर्मी तथा फ्रंटलाइन वर्कर्स वैक्सीनेशन से महरूम है वहीं विकसित देशों में लोगों के पास वैक्सीन खरीदने की क्षमता है। इस वक्त हमें सारी जरूरत इस बात की है, जैसा कि यूनिसेफ के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर ने भी कहा है कि जून में जी7 की होने वाली बैठक तक 19 बिलियन डोज की कमी होगी। इसलिए वे जी7 देश, जिन्हें जून जुलाई-अगस्त में वैक्सीन की इतनी जरूरत नहीं होगी, अगर वैक्सीन दान कर दें तो समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बिंदु की तरफ इशारा किया है कि 11 मई तक कोवैक्स में 18.5 बिलियन डॉलर का अंतर है। हमें वित्तपोषण के इस अंतर को जल्द से जल्द पाटना होगा।

उल्‍का ने क्‍लाइमेट फाइनेंस की तात्‍कालिकता और कुछ देशों द्वारा अपना योगदान बढ़ाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘यहां मैं यह भी कहना चाहूंगी कि हमें क्लाइमेट फाइनेंस की फौरी जरूरत पर भी जोर देने की जरूरत है। हम पिछले काफी समय से 100 अरब डॉलर के निवेश की प्रतिज्ञा दोहरा रहे हैं। हम निजी पक्षों से क्लाइमेट फाइनेंस हासिल करने की बात भी करते हैं। अगर हम यूएनएफसीसीसी के वर्ष 2018 के आकलन  की बात करें तो जी7 देश क्लाइमेट फाइनेंस प्रवाह में 80% का योगदान करते हैं, इसलिए यह देश ही क्लाइमेट फाइनेंस की प्रतिज्ञा को बना या बिगाड़ सकते हैं। कनाडा, जर्मनी और जापान को अपने पिछले योगदान में दोगुने का इजाफा करना होगा।’’

उन्‍होंने कहा ‘‘अगर साइक्लोन ताउते के बारे में बात करें तो विकासशील देशों में सतत स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है जिसमें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित लोगों को भी तैयार किया जाना चाहिए। हमें स्वच्छ ऊर्जा की सतत प्रणाली अपनाने की जरूरत है क्योंकि चक्रवाती तूफान में हमारी स्थापित ऊर्जा प्रणाली को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है। अस्पतालों के मामले में खास तौर पर यह बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वे कोविड-19 महामारी से जूझ रहे मरीजों के लिए वेंटिलेटर का संचालन कर रहे हैं। हमें स्थानीय स्तर पर फार्मास्यूटिकल और वैक्सीन उत्पादन क्षमता का निर्माण करना होगा।’’
अफ्रीका सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के उपनिदेशक डाक्टर अहमद आगवेल ऊमा ने टीकाकरण के मामले में अफ्रीका महाद्वीप की धीमी प्रगति की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अफ्रीका में कोविड के कारण होने वाली मौतों की दर वैश्विक औसत दर से ज्यादा है। जाहिर है कि हमें इस महामारी से बचने के लिए अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा। वैक्सीन की बात करें तो अफ्रीका महाद्वीप के पास 38 मिलियन डोज ही उपलब्ध है और इसमें से भी मात्र 60% डोज ही लोगों को लगाई गई है। अगर हम पूरे परिदृश्य को देखें पूरी दुनिया में एक अरब डोज वितरित की गई हैं। वहीं, अफ्रीका महाद्वीप इस मामले में बहुत पीछे है। ‘वैक्सीन नेशनलिज्म’ अफ्रीका में कोविड-19 महामारी को रोकने की राह में बाधा पैदा कर रहा है। वे सभी देश जो अपनी सीमाओं के अंदर वैक्सीन का निर्माण कर रहे हैं उन्हें वैक्सीन का निर्यात नहीं रोकने चाहिए क्योंकि ऐसा करके वे अफ्रीका महाद्वीप के 1.3 बिलियन नागरिकों की सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हैं। प्रधानमंत्री अब्राहम के शब्दों को दोहराएं तो अगर हमने साथ मिलकर काम नहीं किया तो दुनिया का कोई भी हिस्सा सुरक्षित नहीं रह पाएगा।

ऊमा ने वैक्‍सीन के पर्याप्‍त मात्रा में उत्‍पादन और उसके समानतापूर्ण वितरण की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘जैसा कि अगले महीने जी7 की बैठक आयोजित हो जा रही है, ऐसे में अफ्रीका उन सभी देशों का आह्वान करता है जिनके पास यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि वे पर्याप्त मात्रा में वैक्‍सीन का उत्पादन और उसका समानतापूर्ण वितरण सुनिश्चित कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने को राजनीतिक और नैतिक विफलता माना जाएगा। हम पूरी दुनिया में वैक्सीन के समानतापूर्ण वितरण की तरफ देख रहे हैं। मैं ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का आह्वान करता हूं कि उदारता का गुण इस मुश्किल वक्त में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक मुद्दा है। जी7 की बैठक में प्रधानमंत्री के सामने नेतृत्व करने का अवसर है। हम उम्मीद करते हैं कि वर्ष 2022 के अंत तक दुनिया में दो बिलियन डोज वितरित की जाएंगी। हम यह भी आशा करते हैं कि इस साल पूरी दुनिया में कम से कम एक बिलियन डोज वितरित की जाएंगी ताकि सबसे ज्यादा जोखिम में रहने वाले लोगों को टीका मिलना सुनिश्चित हो सके।’’

उन्‍होंने कहा कि अफ्रीका के लिए हमने कम से कम 60% लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है ताकि जिंदगी को पहले की तरह सामान्य बनाया जा सके। हालांकि यह पहले की जैसी नहीं रहेगी लेकिन कम से कम हम सामान्य आर्थिक गतिविधियों की तरफ लौटना चाहेंगे। मेरी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से गुजारिश है कि जी7 की बैठक में इस बिंदु को पूरी शिद्दत से रखा जाए। इस वक्त वैक्सीन की उपलब्धता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह न सिर्फ नैतिक रूप से जरूरी है बल्कि यह लोगों को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीका भी है। अगर हमने दुनिया के किसी भी एक हिस्से, खासतौर पर अफ्रीका को वैक्सीनेशन से महरूम रखा तो इसका मतलब होगा कि हम वायरस की किसी नयी किस्‍म को दावत देंगे जो हो सकता है कि वैक्सीन को भी बेअसर कर दे और पूरी दुनिया पर उसका खतरा मंडरा जाए। लिहाजा हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि दुनिया के हर एक व्यक्ति को वैक्‍सीन लग जाए। ऐसा करके ही हम अपने जीवन को दोबारा पटरी पर ला सकते हैं।

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन में पब्लिक हेल्‍थ, एनवायरमेंट एण्‍ड सोशल डेटरिमेंट्स ऑफ हेल्‍थ डिपार्टमेंट की निदेशक डॉक्‍टर मारिया नीरा ने जी7 की बैठक में जलवायु के प्रति अधिक सतत नीतियां बनाने पर जोर देते हुए कहा कि इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्‍वास्‍थ्‍य सम्‍बन्‍धी फायदे भी होंगे।

उन्‍होंने कहा ‘‘जब हम वैक्सीन की बात करते हैं तो उसके समानता पूर्ण वितरण का बिंदु सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। वैक्‍सीन से जुड़े कई अहम मसले हैं जिनमें वाणिज्यिक आदान-प्रदान, प्रौद्योगिकी के पहलू और उत्पादन लाइसेंसिंग इत्यादि प्रमुख हैं। इस मुश्किल समय में भी हमारे पास विचार विमर्श करने के लिए कई अच्छे और अहम बिंदु हैं।’’
मारिया ने कहा कि जी7 की बैठक में जलवायु के प्रति और अधिक सतत नीतियां बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। महामारी के इस दौर में जलवायु संकट पर और भी ज्यादा बल दिए जाने की जरूरत है क्योंकि अगर आप जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करते हैं तो इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संबंधी लाभ पैदा होंगे। हमें क्लाइमेट फाइनेंसिंग पर और भी ज्यादा ध्‍यान देना होगा क्‍योंकि महामारियों में भी जलवायु की बहुत बड़ी भूमिका होती है।

जलालपुर-भाऊपुर गांव में वनसुअरा का आतंक, गांव में मचा हाहाकार

जौनपुर: जिले के जलालपुर थाना अंतर्गत ग्राम भाऊपुर में सोमवार शाम करीब 5 से 6 बजे के बीच वनसुअरा ने हमला कर दिया व मनीष सिंह पुत्र दयाशंकर सिंह को जांघ के नीचे सूंड व दांत से फाड़ते हुए गांव में प्रवेश कर गया, जिससे पूरे गांव में हड़कंप मच गया। इसके बाद पूरे गांववालों ने जुटकर नहर के पास जंगल व झाड़ी में खोजना शुरू किया और घंटों की मशक्कत के बाद चारों तरफ से घेराबंदी करके लाठी-डंडे व तंगारी से आखिर उसे मार गिराया।

गौरतलब है कि जलालपुर थाना अंतर्गत ग्राम भाऊपुर में वनसुअरा का आतंक इतना फैल गया है कि आते-जाते नहर के पास बाइक वालों पर भी वार करता था। इस तरह गाँव में सीधे घुसकर मनीष सिंह पुत्र दयाशंकर सिंह पर हमला करने  के बाद पहले से ही त्रस्त गांववालों ने एक साथ मिलकर नहर के पास जंगल व झाड़ी में खोजना शुरू किया और अंततः उन्होंने वनसूअर को खोज निकाला। घंटों की मशक्कत के बाद गांववालों ने चारों तरफ से घेराबंदी करके लाठी-डंडे व तंगारी से आखिर उसे मार गिराया। उसका वजन लगभग 80 किलो था, जिसका विशालकाय शरीर देखकर ही भय लगना सामान्य था।

गांववालों ने बताया कि एक-दो बार अपनी सूंड से उठाकर बाईक वालों को भी उसने नहर में फेंक दिया। पुलिस व बीएसएफ की तैयारी करने वाले बच्चे जो नहर पर दौड़ लगाते थे, उन्होंने भी भयभीत होकर शाम को दौड़ना बंद कर दिया। वनसुअरा के डर से शाम को नहर से आना-जाना भी यात्रियों ने बंद कर दिया। उन्होंने बताया कि अभी भी चार से पांच और वनसुअर इसी इलाके में टहल रहे हैं, जिसके कारण गाँववालों का डर अभी भी बना हुआ है।

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टीका: जोखिम बेहतर ढंग से समझाने की ज़रूरत

corona

ज़ारों-लाखों वालंटियर्स पर किसी नई दवा या टीके को कारगर और सुरक्षित पाए जाने के बाद जब वही दवा या टीका करोड़ों को दिया जाता है तो सुरक्षा सम्बंधी कई मुद्दे सामने आते हैं। इस दृष्टि से कोविड-19 के जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) या एस्ट्राज़ेनेका टीके से चंद लोगों में दुर्लभ समस्या देखा जाना कोई अनहोनी नहीं है, लेकिन ऐसे दुर्लभ किंतु खतरनाक साइड इफेक्ट स्वास्थ्य महकमे के सामने दुविधा खड़ी कर सकते हैं। गौरतलब है कि जे-एंड-जे के टीके से दस लाख टीकाकृत व्यक्तियों में से दो व्यक्तियों में रक्त का थक्का बनने की समस्या देखी गई है, वहीं एस्ट्राज़ेनेका टीके में एक लाख में से एक व्यक्ति में यही समस्या देखी गई है। लेकिन दोनों ही टीकों के ये साइड इफेक्ट कोविड-19 के जोखिम की तुलना में बहुत कम हैं: कोविड-19 से एक लाख लोगों में से 200 व्यक्तियों की मौत हो जाती है

एक तरफ तो, संभावित साइड इफेक्ट को लेकर जनता के साथ पारदर्शिता रखना बहुत महत्वपूर्ण है। साथ ही यह भी पता होना चाहिए कि इन समस्याओं को कैसे पहचानें और इलाज करें। दूसरी ओर, ऐसा करने पर टीकों को लेकर संदेह पैदा हो सकते हैं और टीके के प्रति हिचक और मज़बूत हो सकती है।

यदि यह बताया जाए कि जोखिम बहुत कम (दस लाख लोगों में एक) है, तो कुछ लोग फौरन यह सोचने लगते हैं कि शायद वह एक व्यक्ति मैं ही हूं। सवाल है कि लोग किस हद तक बहुत दुर्लभ लेकिन गंभीर दुष्प्रभावों को व्यावहारिक रूप में समझ पाएंगे? अध्ययन बताते हैं कि साधारण लोग किसी दवा या टीके के जोखिम की संभावना या लाभ-हानि के अनुपात को समझ नहीं पाते। यदि कोई दुष्प्रभाव नया और घातक है तो लोग उसकी संभावना को अधिक मान कर चलते हैं। वैसे मनोविज्ञानियों का मानना है कि यदि लोगों को स्पष्ट और सही तरह से जानकारी दी जाए तो इस तरह के भ्रम बनने से रोका जा सकता है।

मार्च के अंत तक युरोपीय मेडिसिन एजेंसी (ईएमए) को युरोप और यूके में एस्ट्राज़ेनेका से टीकाकृत ढाई करोड़ लोगों में से 86 लोगों में रक्त का थक्का बनने के मामले दिखे, जिनमें से 18 लोगों की मृत्यु हुई थी। अधिकांश मामले 60 साल से कम उम्र की महिलाओं में देखे गए थे। फिर अमेरिका में जे-एंड-जे से टीकाकृत अस्सी लाख में से 15 लोगों में रक्त का थक्का जमने की समस्या सामने आई, और तीन मामले गंभीर स्थिति में पहुंचे थे। ये मामले भी 60 से कम उम्र की महिलाओं में देखे गए थे।

इन मामलों के चलते अमेरिका और युरोप ने दोनों टीकों के वितरण पर रोक लगा दी। फिर दोनों ने निष्कर्ष निकाला कि टीकों का लाभ इन जोखिमों से कहीं अधिक है, इसलिए इनका वितरण फिर से शुरू किया जाए।

यह बहस का मुद्दा है कि महामारी को थामने के प्रयासों के मद्देनज़र टीकों पर हफ्ते भर लंबी रोक लगाना कितना उचित था? आकंड़ों को देखें तो जवाब है – बिल्कुल नहीं। लाखों लोगों को टीका देने पर सिर्फ कुछ ही लोग इस जोखिम से पीड़ित होंगे, लेकिन टीका न दिए जाने पर लाखों संक्रमित लोगों में से हज़ारों की जान जा सकती है।

अधिकतर लोग आंकड़ों की भूलभुलैया में उलझ जाते हैं। लिहाज़ा, ज़रूरी है कि बात को ठीक तरह से प्रस्तुत किया जाए। यह भी समझना ज़रूरी है कि कोई भी औषधि या टीका जोखिमों से पूरी तरह मुक्त नहीं होता।

वैसे ज़्यादा चिंता विकसित देशों में नज़र आ रही है लेकिन भारत को इनसे पूरी तरह मुक्त नहीं माना जा सकता। बेहतर होगा कि समय रहते इस मुद्दे को संबोधित किया जाए।

कोविड-19 पर भारत के मुगालते की आलोचना

भारत कोविड-19 की दूसरी लहर से जूझ रहा है। वर्ष 2020 की पहली लहर की तुलना में इस बार रोज़ नए मामलों और मरने वालों की संख्या भी काफी तेज़ी से बढ़ रही है। इस दौरान अस्पताल, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर और दवाइयों के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है।

भारत में कोविड-19 के मामले मई में 4 लाख प्रतिदिन से अधिक हो चुके थे। कई शहरों में स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा चरमरा गया। महाराष्ट्र व दिल्ली जैसे कुछ राज्यों में सरकार को कर्फ्यू और लॉकडाउन का सहारा लेना पड़ा। राज्य सरकारें स्वास्थ्य सुविधाओं और ऑक्सीजन संयंत्रों के निर्माण के प्रयास कर रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तैयारी काफी पहले ही कर लेना चाहिए थी।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के प्रमुख श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार वर्ष 2021 की शुरुआत में ही नीति निर्माता, मीडिया और जनता में यह मान्यता बनने लगी थी कि भारत में महामारी खत्म हो गई है, और हमने झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त कर ली है। कुछ वैज्ञानिकों ने भी इस मत को हवा दी। दूसरी लहर न आने के विश्वास के चलते अर्थ व्यवस्था को मज़बूत करने के उद्देश्य से सभी गतिविधियां फिर से पहले की तरह शुरू कर दी गर्इं। भारत में इस वर्ष जनवरी और फरवरी में मामलों में कमी देखी गई थी, और मार्च में बड़े-बड़े सार्वजनिक समारोह आयोजित हुए और किसी प्रोटोकॉल का पालन नहीं हुआ। इसी माह पांच राज्यों में मतदान भी हुए जिसमें प्रधानमंत्री सहित कई राजनेताओं ने सैकड़ों बड़ी रैलियां कीं। हालांकि चुनाव आयोग ने बड़ी रैलियां और रोड-शो आयोजन के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी भी दी, लेकिन न किसी ने इस पर कोई ध्यान दिया और न ही आयोग ने किसी पर कोई कार्रवाई की।

कोविड मामलों में निरंतर वृद्धि के बाद भी कुंभ मेला आयोजित करने की अनुमति दी गई। इस दौरान लाखों लोगों ने गंगा नदी में डुबकी लगाई। यह त्योहार 1 अप्रैल को शुरू हुआ और 17 दिन बाद स्थानीय अधिकारियों द्वारा इस पर रोक लगाई गई। स्थानीय अधिकारियों ने इस त्योहार में भाग लेने आए लोगों में कोविड-19 के 2000 मामलों की सूचना दी। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी गंभीर परिस्थितियों में बड़े सामूहिक समारोहों, यात्राओं और भीड़-भाड़ जुटाने से बचना चाहिए था। इसके साथ ही मास्क जैसे सुरक्षा उपायों को अपनाना भी आवश्यक था। इन सावधानियों से सामूहिक समारोहों में न केवल लोग सुरक्षित रहते बल्कि उनको महामारी के खत्म होने के गलत संकेत भी नहीं मिलते।

वर्तमान में अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से देशभर में संकट की स्थिति बन गई है। कई गैर-सरकारी संगठन और वालंटियर्स ऑक्सीजन प्रदान करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर प्रतिदिन हज़ारों लोग ऑक्सीजन सिलिंडर या अस्पताल में ऑक्सीजन युक्त बिस्तर या वेंटीलेटर के लिए गुहार लगा रहे हैं।

भारत सरकार द्वारा अप्रैल की शुरुआत में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में ऑक्सीजन का दैनिक उत्पादन 7127 मीट्रिक टन और खपत 3842 मीट्रिक टन थी। इसके कुछ ही दिनों के बाद जब कुछ अस्पतालों ने ऑक्सीजन की कमी की जानकारी उच्च न्यायलय को दी तो पता चला कि ऑक्सीजन की प्रतिदिन खपत 8000 मीट्रिक टन से भी अधिक हो चुकी है।

केंद्र और राज्य सरकारों ने पहली लहर के थमने के बाद अस्पतालों में की गई ऑक्सीजन व्यवस्था को वापस ले लिया था। हालांकि, उस समय की स्थिति को देखते हुए शायद यह एक ठीक निर्णय था लेकिन सरकारी प्रणाली में इतना लचीलापन नहीं था कि कोविड मामले बढ़ने पर एक बार फिर ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सके।

ऑक्सीजन की आपूर्ति और दवाओं के लिए युरोपीय संघ तथा जर्मनी ने हर संभव मदद का वादा किया है। इसके अलावा भारत सरकार ने तरल ऑक्सीजन कंटेनरों को एयरलिफ्ट करने के लिए हवाई जहाज़ भी भेजे हैं। अमेरिका ने भी कहा है कि वह कोविड-19 टीका तैयार करने के लिए आवश्यक कच्चा माल भेज रहा है और ऑक्सीजन का उत्पादन करने वाले उपकरण भेजने का भी प्रयास कर रहा है।

भारत में बढ़ते हुए कोविड-19 मामलों ने विदेशी सरकारों को अधिक सतर्क कर दिया है। कई देशों ने भारत से आने वाले लोगों पर रोक लगा दी है।

टीकाकरण के मामले में निर्यात के चलते भारत स्वयं के लिए टीकों की कमी का सामना कर रहा है। जिन लोगों को टीके की पहली खुराक मिल चुकी है उनको दूसरी खुराक नहीं मिल पा रही है। देश भर के टीकाकरण केंद्रों से टीकों की कमी की शिकायतें आ रही हैं। अशोका युनिवर्सिटी के वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील इसके पीछे खराब नियोजन को कारण बताते हैं। भारत ने टीका निर्माताओं को उपयुक्त आदेश ही नहीं दिए ताकि वे पर्याप्त मात्रा में खुराक तैयार करके रख सकें।

स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर भारत सरकार ने पिछली बार 8 अप्रैल को सूचित किया कि उसके पास 2.4 करोड़ टीकों का स्टॉक है। 26 अप्रैल तक भारत में 14.5 करोड़ खुराकें दी जा चुकी थीं और जुलाई तक 50 करोड़ टीके लगाने का आश्वासन दिया गया है। इस बीच 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण की घोषणा भी कर दी गई है। हैरानी की बात है कि टीकों की कमी के बाद भी भारत डबल्यूएचओ और कोवैक्स सुविधा में व्यावसायिक रूप से टीकों का निर्यात जारी रखे है। वैसे तो टीका कूटनीति और निर्यात की नीति में कोई समस्या नहीं है लेकिन भारत ने अपनी मांग का कम आकलन किया है।

कवि हूबनाथ पाण्डेय की पाँच कविताएं

1. दुख

दुख
बसंत सरीखे आते थे
पत्तों के बीच से
झाँकते थे बौर आम के
कहीं अमलतास
कानों में पीले झुमके झुलाता
सकुचाया अशोक
अपनी लाली छिपाता
धीरे धीरे
बसंत की तरह खिलता था
दुख

पूरे मौसम
जिया जाता था
घूँट घूँट पिया जाता था
कड़वा कसैला तीखा दुख
बारिश की पहली फुहार सा
सोंधा सोंधा दुख
बड़ी देर तक
रचा बसा रहता रोम रोम में

दुख
उत्सव हुआ करता था
मृत्यु अवश्यंभावी है
पर वह आने से पहले
संदेश दिया करती थी
उसकी बाट जोहते
डर तो लगता
असहाय सा लगता
पर धीरज के साथ

भीषण आँधी के बाद
टूटी डालियों वाले
पेड़ सरीखे
धीरे धीरे काँपते
थिरा जाते थे एक दिन
और दुख स्मृतियाँ बनकर
वक्त बेवक्त खिला करते

दुख अभाव तो लाते
पर समृद्ध भी करते थे
बेहतर मनुष्य बनाने का
ज़रिया थे
दुख

सांत्वना दिलासा ढाँढस
सहानुभूति श्रद्धांजलि
शोक
सार्थक शब्द हुआ करते थे
कमज़ोर फुसफुसाती
ध्वनियाँ भर नहीं

दुख की भी एक
संस्कृति हुआ करती थी
एक सलीक़ा हुआ करता था

बीच बाज़ार
भरी भीड़ में
अचानक निर्वस्त्र करके
अकेला छोड़ देनेवाला
आततायी दुख
न चीख़ने देता है
न रोने देता है
न कहने देता है
न सहने देता है
न बहने देता है

बर्फ़ की चट्टान सा
सड़क के बीचोंबीच
क़तरा क़तरा पिघलने
और भाप बनकर
उड़ जाने के लिए
सँवलाए आसमान के नीचे
अनाथों सा छोड़ देता है

यह दुख नहीं हो सकता
यह तो यातना है
निरंतर उधेड़ते घावों का
एक अंतहीन सिलसिला
जो मुरदाघरों के ठंडे
गलियारे से होते हुए
अलाव सरीखी
जलती चिताओं के बीच
या कब्रिस्तान के दलदल में
असहाय डूबने के लिए
नितांत अकेला छोड़ देता है

अर्थहीन शब्द
भावहीन चेहरों
सांत्वनाहीन समय में
अभिशाप सा उतरा
दुख
इससे पहले कि
पूरी मानवता पर भारी पड़े

आइए!
मरघट सी इस दुनिया को
प्रार्थनाघरों में तब्दील करें

इस प्रायश्चित बेला में
हाथ जोड़कर नहीं
हाथ पकड़कर
एक दूसरे का
यक़ीन दिलाएँ
कि हम अकेले नहीं
और धीरे धीरे
यातनाभरा दुख
सांत्वना में बदल जाएगा

फ़िलहाल
इस भयावह अंधेरे में
लोगों को अहसास दिलाते रहें
कि सभी सोए नहीं हैं
कुछ हैं
जो अब भी जाग रहे हैं

 

2. मौसम ठीक नहीं

कोई मौसम
ऐसा भी आता है
कितना भी सहेजें
शब्दों में घुन लग जाता है

ऊपर से
सही सलामत दिखते हैं
भीतर से ढह रहे होते हैं
निरंतर
जैसे बाढ़ में टूटते हैं
नदियों के कगार

शब्दों से टूट कर
अर्थ बह जाते हैं
बाढ़ के पानी में
डूबने से पहले
बहुत छटपटाते हैं अर्थ

कितना ही धूप दिखाओ
शब्दों में लग जाते हैं
दीमक
बदरंग धूसर भुसभुसे शब्द
ढो नहीं पाते
बुनियादी अर्थों का बोझ

छूते ही बिखर जाते हैं
बच रहती है
सड़ी मिट्टी की धुमैली गंध
बेजान कीड़ों से पंखझरे अर्थ

शब्द
चरित्रहीन हो जाते हैं
किसी किसी मौसम में
ढीठ और उजड्ड

ऐसे में उनसे मुँह चुराकर
निकल जाना ही बेहतर
अपनी इज़्ज़त बचानी हो
तो किसी किसी मौसम में
शब्दों के मुँह लगने की बजाय
चुप मार जाना ही बेहतर

कम से कम जब तक
मौसम का मिजाज़ न बदले

 

3. धरती के चार चिंतक

बहुत साल पहले की बात है
धरती के चार चिंतक
चिंता में डूबे
कि डूब जाएगी धरती
आबादी के बोझ से

ख़ूबसूरत धरती की
ख़ूबसूरत सुविधाएँ
बदसूरत लोगों की वजह से
जाएँ रसातल को
ऐसा होने नहीं देंगे
प्यारी सी धरती को
गंदे-घिनौनों को ढोने नहीं देंगे

एक ने सुझाया था
मैं महामारी ला सकता हूँ
दूजे ने कहा
मैं दवाई बना सकता हूँ
पर वह असर नहीं करेगी
आबादी ख़ुशी ख़ुशी
बेमौत मरेगी

तीजा चतुर था
मैं ऐसा नाटक दिखाऊँगा
मानो कितनी फ़िक्र है हमें
इन मरनेवालों की
सौ घिनौनों के साथ
दो अच्छे भी मार देंगे
तो भरोसा बना रहेगा
लोग ख़ूब साथ देंगे

चौथा फ़रमाया
पूरी दुनिया को जोड़ेंगे
महामारी के विरुद्ध
पर करेंगे कुछ नहीं
आपदा को अवसर बनाएँगे
आम दिनों से ज्यादा कमाएँगे

वैसे भी मारने वाला
और बचाने वाला तो
ऊपरवाला ही है
ऊपरवाले का
भव्य घर बनाएँगे
यह देख लोग
ख़ुशी ख़ुशी मर जाएँगे

पहला बोला
इतना डरा देंगे लोगों को
कि हो जाएँगे अंधे
किसीको दिखाई न देंगे
हमारे काले धंधे

इस तरह
चारों चतुर चिंतकों ने
चली ऐसी चाल
सुधर गया धरती का हाल
उतर गया गंदगी का बोझ
भले थोड़ा ही सही
ऐसी सुंदर कहानी
पहले किसी ने न कही
कहो कैसी रही!

(*यह कथा पूरी तरह से काल्पनिक है। यदि किसी घटना या व्यक्ति से साम्य नज़र आए तो इसे निरा संयोग समझा जाए।)

 

4.आइए !

राष्ट्र संकट में है
उबरने के लिए
बलिदान चाहिए
आइए राष्ट्र के लिए
बलिदान हों!

राष्ट्र को धन दें
राष्ट्र को तन दें
राष्ट्र को मन दें
राष्ट्र को जीवन दें!

राष्ट्र के लिए
आइए!
हम सब एक साथ
दवा के अभाव में मरें
इस तरह कि
अंतिम संस्कार भी न हो

हम टीके के जाल में
छटपटाएँ
अव्यवस्था में पटपटाएँ
और कभी झुलस कर मरें
कभी हुलस कर मरें
कभी भूख से मरें
कभी बेकारी से
कभी महामारी से

मरते रहें
राष्ट्र निर्माण करते रहें
राष्ट्र की नींव में धँसें हम
हत्यारे की चाल में फँसें हम
हवा को तरसें
पानी को तरसें
पर उफ न करें

क्योंकि हमारी लाशों पर
एक महान देश बनेगा
धर्म का झंडा
आसमान तक तनेगा
और एक दिन बचा हुआ देश
एक साथ गाएगा
राष्ट्रगीत

बिके हुए राष्ट्र में
भेड़िए के ख़ूँख़्वार जबड़े से
बचे हुए राष्ट्र का लोथड़ा
मरे हुए राष्ट्र के सम्मान में
विकास के गीत गाएगा

अतः
विकास के उस भावी यज्ञ में
हम सब
अपने पूरे परिवार सहित
सभी परिजनों सहित
आओ!
हवन कुंड में कूदें!

हमारी मांस के चिरायँध गंध से
हवा में ऑक्सीजन बढ़ेगा
सेंसेक्स आसमान चढ़ेगा
और राष्ट्र निर्माता
एक नया झूठ गढ़ेगा

आइए!
हम सब
झूठ की बलिवेदी पर
सत्य को हलाल करें
सत्य हमेशा
सबसे बड़ी रुकावट रहा है
किसी भी महान राष्ट्र के
नवनिर्माण में

 

5. विजेता

मैदान में जुटे
सारे पिता
स्पर्धा थी
कौन पिता अपने बच्चे को
सबसे ऊँचा उछाल पाता है

यह पिता भी गया
ढोल नगाड़ों के शोर के बीच
खिलखिलाता गर्व से
मैदान के बीचोंबीच
सीना फुलाए

दोनों हाथों में बच्चा थामे
उसकी नज़रें थीं
आसमान पर
बच्चा उछाला गया
बच्चा हँसता हुआ आ गया
पिता की मज़बूत बाहों में

बच्चे को पूरा भरोसा था
पिता उसे गिरने नहीं देगा
कि अचानक पिता ने
पूरी ताक़त लगाकर
बच्चे को उछाल दिया
आसमान की ओर

इतने ऊपर कि किसीने
सोचा भी न होगा
तमाशबीनों की निगाहें
आसमान की ऊँचाइयों पर

तालियाँ पीटता पिता
विजेता की मुद्रा में
ठहाके लगाता
नई ऊँचाइयों के नशे में
बच्चे को पकड़ना भूल गया

बाक़ी पिताओं के सिर
शर्म से झुके हुए
वे धीरे धीरे मैदान के बाहर

बचा खिलखिलाता पिता
आसमान ताकते
तमाशबीन और
ज़मीन पर लहूलुहान पड़े
मासूम बच्चे के चेहरे पर
मरा हुआ भरोसा


परिचय


हूबनाथ पांडेय
हूबनाथ पांडेय

कवि : हूबनाथ पांडेय

सम्प्रति: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
संपर्क: 9969016973
ई-मेल: hubnath@gmail.com

संवाद लेखन:

  • बाजा (बालचित्र समिति, भारत)
  • हमारी बेटी (सुरेश प्रोडक्शन)
  • अंतर्ध्वनि (ए.के. बौर प्रोडक्शन)

प्रकाशित रचनाएं:

  • कौए (कविताएँ)
  • लोअर परेल (कविताएँ)
  • मिट्टी (कविताएँ)
  • ललित निबंध: विधा की बात
  • ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय
  • सिनेमा समाज साहित्य
  • कथा पटकथा संवाद
  • समांतर सिनेमा

इस स्विस बैंक से जुड़े कोयला संयंत्रों की वजह से रोज़ 51 मौतें होंगी!

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (CREA) के नए शोध के अनुसार, HSBC बैंक के स्वामित्व हिस्सेदारी वाली कंपनियों द्वारा निर्मित और नियोजित नए कोयला संयंत्रों से प्रति वर्ष वायु प्रदूषण अनुमानित 18,700 मौतों का कारण बनेगा। दूसरे शब्दों में, हर रोज़ लगभग 51 लोगों की मौतों का कारण बनेंगे ये संयंत्र।

इन कोयला संयंत्रों के पूरे होने पर इनसे वायु प्रदूषण के कारण अस्थमा से  29,000 अस्पताल के आपातकालीन दौरे, 25,000 असामयिक प्रसव जन्म और प्रति वर्ष 14 मिलियन दिनों की रोज़गार कार्य अनुपस्थिति होगी। स्वास्थ प्रभाव की प्रति वर्ष लागत 6.2 बिलियन अमरीकी डालर की गणना से मेल कहती है, और अनुमानित मौतें भारत में सबसे ज़्यादा  (प्रति वर्ष 8,300 मौतें), इसके बाद चीन (4,200), बांग्लादेश (1,200), इंडोनेशिया (1,100), वियतनाम (580) और पाकिस्तान (450) हैं।

अध्ययन पर्यावरण संगठन मार्केट फोर्सेज द्वारा अप्रैल 2021 की जांच पर आधारित है, जिसमें दिखाया गया कि HSBC अपनी परिसंपत्ति प्रबंधन शाखा के माध्यम से कोयला कंपनियों में स्वामित्व हिस्सेदारी रखता है। ये कंपनियां मिलकर कोयले से 99 गीगावाट (GW) ऊर्जा पैदा करने वाले हुए कम से कम 73 नए कोयला संयंत्र (137 अलग-अलग कोयला संयंत्र इकाइयां) की योजना बनाती हैं। CREA ने फिर इस डाटा का उपयोग सभी 73 संयंत्रों के पूरे हो जाने पर प्रति वर्ष वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का विश्लेषण करने के लिए किया।

HSBC ने स्वीकार किया है कि 2040 तक कोयला वित्तपोषण को समाप्त करने की उसकी योजना में इसकी परिसंपत्ति प्रबंधन शाखा शामिल नहीं हैं। CREA द्वारा किए गए अध्ययन में वायु प्रदूषण के प्रभावों की गणना के लिए एक स्थापित कार्यप्रणाली का उपयोग किया गया है, इस धारणा के साथ कि सभी संयंत्र अपने संबंधित राष्ट्रीय प्रदूषण मानकों का पालन करते हैं।

इस शोध पर लॉरी म्यलयविरटा, CREA में लीड विश्लेषक, ने कहा, “उन देशों में जो पहले से ही दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित हैं, HSBC के निवेश बिजली उत्पादन के सबसे अशुद्ध रूप पर निर्भरता बढ़ा रहे हैं। मृत्यु और बीमारी के दसियों हजारों मामले जो HSBC से जुड़े कोयला बिजली संयंत्रों से उत्पन्न होंगे, सार्वजनिक स्वास्थ्य और वैश्विक जलवायु की रक्षा के लिए स्वच्छ ऊर्जा में निवेश को स्थानांतरित करने की तात्कालिकता को रेखांकित करते हैं।”

आगे, एैडम मैकगिब्बन, मार्केट फोर्सेज में यूके कैंपेन लीड, ने कहा, “नए कोयला बिजली संयंत्रों के विकास से जुड़ी कंपनियों के एक निवेशक के रूप में, HSBC का जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते की विफलता में वित्तीय हित है। अब हम पता चलता हैं कि HSBC के निवेश पोर्टफोलियो के परिणामस्वरुप सैकड़ों हजारों लोगों की अकाल मृत्यु होगी, मुख्य रूप से विकासशील देशों में जिन्हें स्वच्छ, रिन्यूएबल ऊर्जा के लिए प्राथमिकता प्राप्त होनी चाहिए।”

यदि HSBC इस वर्ष ग्लासगो में COP26 जलवायु वार्ता में अपना चेहरा दिखाने की उम्मीद रखता है, तो सही रास्ता अपनाना होगा और जीवाश्म ईंधन द्वारा लाए गए जलवायु और मानव स्वास्थ्य संकटों को बढ़ावा देने वाली किसी भी कंपनी को नकारना होगा।

सिर्फ़ पौधे लगाने से ग्लोबल वार्मिंग नहीं रुकेगी: नेचर

नेट ज़ीरो होने की चर्चाओं में अमूमन कार्बन को कम करने के लिए ‘नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) या प्राकृति पर निर्भर तरीकों का ज़िक्र होता है। जैसे जंगलों की रक्षा और उनको बढ़ाना क्योंकि वो कार्बन सोखते हैं या इसी वजह से बड़े पैमाने पर पेड़ पौधे लगाने की पहल आदि।

लेकिन ग्लोबल वार्मिंग को इन तरीकों से सीमित करने की संभावना बहुत कम है। ‘नेचर’ में आज प्रकाशित एक नए ऑक्सफोर्ड रिसर्च के अनुसार, ‘नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) सदी के अंत तक ही जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमारी लड़ाई में योगदान कर सकते हैं। विश्लेषण से पता चलता है कि, ग्लोबल वार्मिंग की बढ़ोतरी को सीमित करने के लिए हमें एमिशन्स को कम करना होगा, इसके लिए अच्छे प्रबंधन और प्रकृति की बहाली कि आवशयकता के साथ साथ एनबीएस के निवेश में बढ़ोतरी करनी चाहिए जिससे भविष्य के लिए इकोसिस्टम्स और भूमि मैं सुधार होगा।

ऑक्सफोर्ड टीम ने पाया कि एनबीएस उपायों से, जिसमें इकोसिस्टम्स की सुरक्षा और बड़े पैमाने पर इसकी बहाली शामिल है और भूमि प्रबंधन में सुधार करने से ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस कि बजाय 0.1 डिग्री सेल्सियस कम होगा और अगर टारगेट 2.0 डिग्री सेल्सियस का है तो इन उपायों से केवल 0.3 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग कम कि जा सकेगी । ये तभी हासिल होगा जब 2025 के बाद, प्रति वर्ष 10 गीगाटन से अधिक CO 2 को खत्म किया जाएगा, ये ग्लोबल ट्रांसपोर्टेशन क्षेत्र के वार्षिक एमिशन्स से अधिक होगा जिसकी कीमत 100 डॉलर प्रति टन से कम CO2 की लागत पर होगी।

इसमें ज़रूरी बात ये है कि, ‘नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) धरती को एक चरम तापमान तक पहुंचने के बाद भी लंबे समय तक ठंडा रख सकते है। रिसर्चर्स  के अनुसार बेहतर परिस्थितियों में भी NBS ग्लोबल वार्मिंग को 2055 तक 0.1° C और 2100 तक 0.4°C कम कर सकता है। लेकिन, यह अनुमान आधारित है, वर्तमान में होने वाले जलवायु परिवर्तन के खर्च के एक छोटे से हिस्से को ही ‘नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) के लिए दिया जाता है।

ऑक्सफोर्ड के नेचर बेस्ड सॉल्यूशंस इनिशिएटिव के तकनीकी निदेशक Cécile ए जे गिरार्डिन के अनुसार, ‘दुनिया को अब प्रकृति आधारित समाधानों में निवेश करना चाहिए जो इकोलॉजिकली सही है, सामाजिक रूप से न्यायसंगत हों, और एक सदी या उससे अधिक समय में समाज को कई लाभ देने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं । उचित रूप से प्रबंधित, बहाली और सस्टेनेबल प्रबंधन से हमारी कामकाजी भूमि के संरक्षण से आने वाली कई पीढ़ियों को फायदा हो सकता है।’
‘नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS), मानव कल्याण और बायोडायवर्सिटी दोनों के लिए फायदा पहुंचाने वाले हैं और सामाजिक चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रकृति के साथ काम करते हैं, और उन्हें नवंबर में हुए COP 26 जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के आधार पर ही बनाया गया है ।

सह-लेखक प्रोफेसर, यदविंदर मल्ही, ऑक्सफ़ोर्ड प्रोफ़ेसर ऑफ़ इकोसिस्टम साइंस, के अनुसार, ‘जलवायु लक्ष्य जितने अधिक महत्वाकांक्षी होंगे, उतने कम समय में इस तरह के समाधान के हासिल किये जा सकते हैं जिससे पीक वार्मिंग पर भी प्रभाव पड़ेगा।’

प्रोफेसर माइल्स एलन कहते हैं, ‘हालाँकि महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों के कॉर्पोरेट दावे, लेकिन मध्यम अवधि की योजनाएँ जो फॉसिल फ्यूल एमिशन्स को कम करने के विकल्प के रूप में NBS पर निर्भर करती हैं, वो सिर्फ एक ढेर नहीं लगती।’
लेकिन, रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है, अगर ग्लोबल वार्मिंग की जांच नहीं की जाती है, तो वाइल्डफायर और अन्य इकोलॉजिकल नुक़सान ‘नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) की प्रभावशीलता को कम कर सकते हैं। इसलिए उनकी दीर्घकालिक कार्बन सिंक संभावनाएं और बायोडायवर्सिटी, इक्विटी और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) और उनके प्रभावों पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है कि ग्लोबल वार्मिंग को अन्य तरीकों के माध्यम से सीमित करना चाहिए, CO 2 के जियोलाजिकल स्टोरेज डीकार्बोनाइजेशन तक।

लेखक निवेश में वृद्धि के लिए भी कहते हैं जो कि गतिविधियों के कठोर मूल्यांकन के साथ मेट्रिक्स का उपयोग करके NbS के मिश्रित और दीर्घकालिक लाभों पर विचार करते हैं।

इस रिपोर्ट के सह-लेखक, प्रोफेसर नथालिए सेड्डन, संस्थापक ऑक्सफोर्ड के नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) के निदेशक का ये निष्कर्ष है कि ‘एक महत्वाकांक्षी स्केलिंग-अप नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस’ (NBS) को जल्दी से लेकिन सावधानी के साथ लागू करने की आवश्यकता है, जो एक तरह से बायोडायवर्सिटी और स्थानीय लोगों के अधिकारों का समर्थन करता है, जबकि फॉसिल फ्यूल्स को स्थिर रखते हुए कम करता है।’

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