कवि हूबनाथ पाण्डेय की पाँच कविताएं

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1. दुख

दुख
बसंत सरीखे आते थे
पत्तों के बीच से
झाँकते थे बौर आम के
कहीं अमलतास
कानों में पीले झुमके झुलाता
सकुचाया अशोक
अपनी लाली छिपाता
धीरे धीरे
बसंत की तरह खिलता था
दुख

पूरे मौसम
जिया जाता था
घूँट घूँट पिया जाता था
कड़वा कसैला तीखा दुख
बारिश की पहली फुहार सा
सोंधा सोंधा दुख
बड़ी देर तक
रचा बसा रहता रोम रोम में

दुख
उत्सव हुआ करता था
मृत्यु अवश्यंभावी है
पर वह आने से पहले
संदेश दिया करती थी
उसकी बाट जोहते
डर तो लगता
असहाय सा लगता
पर धीरज के साथ

भीषण आँधी के बाद
टूटी डालियों वाले
पेड़ सरीखे
धीरे धीरे काँपते
थिरा जाते थे एक दिन
और दुख स्मृतियाँ बनकर
वक्त बेवक्त खिला करते

दुख अभाव तो लाते
पर समृद्ध भी करते थे
बेहतर मनुष्य बनाने का
ज़रिया थे
दुख

सांत्वना दिलासा ढाँढस
सहानुभूति श्रद्धांजलि
शोक
सार्थक शब्द हुआ करते थे
कमज़ोर फुसफुसाती
ध्वनियाँ भर नहीं

दुख की भी एक
संस्कृति हुआ करती थी
एक सलीक़ा हुआ करता था

बीच बाज़ार
भरी भीड़ में
अचानक निर्वस्त्र करके
अकेला छोड़ देनेवाला
आततायी दुख
न चीख़ने देता है
न रोने देता है
न कहने देता है
न सहने देता है
न बहने देता है

बर्फ़ की चट्टान सा
सड़क के बीचोंबीच
क़तरा क़तरा पिघलने
और भाप बनकर
उड़ जाने के लिए
सँवलाए आसमान के नीचे
अनाथों सा छोड़ देता है

यह दुख नहीं हो सकता
यह तो यातना है
निरंतर उधेड़ते घावों का
एक अंतहीन सिलसिला
जो मुरदाघरों के ठंडे
गलियारे से होते हुए
अलाव सरीखी
जलती चिताओं के बीच
या कब्रिस्तान के दलदल में
असहाय डूबने के लिए
नितांत अकेला छोड़ देता है

अर्थहीन शब्द
भावहीन चेहरों
सांत्वनाहीन समय में
अभिशाप सा उतरा
दुख
इससे पहले कि
पूरी मानवता पर भारी पड़े

आइए!
मरघट सी इस दुनिया को
प्रार्थनाघरों में तब्दील करें

इस प्रायश्चित बेला में
हाथ जोड़कर नहीं
हाथ पकड़कर
एक दूसरे का
यक़ीन दिलाएँ
कि हम अकेले नहीं
और धीरे धीरे
यातनाभरा दुख
सांत्वना में बदल जाएगा

फ़िलहाल
इस भयावह अंधेरे में
लोगों को अहसास दिलाते रहें
कि सभी सोए नहीं हैं
कुछ हैं
जो अब भी जाग रहे हैं

 

2. मौसम ठीक नहीं

कोई मौसम
ऐसा भी आता है
कितना भी सहेजें
शब्दों में घुन लग जाता है

ऊपर से
सही सलामत दिखते हैं
भीतर से ढह रहे होते हैं
निरंतर
जैसे बाढ़ में टूटते हैं
नदियों के कगार

शब्दों से टूट कर
अर्थ बह जाते हैं
बाढ़ के पानी में
डूबने से पहले
बहुत छटपटाते हैं अर्थ

कितना ही धूप दिखाओ
शब्दों में लग जाते हैं
दीमक
बदरंग धूसर भुसभुसे शब्द
ढो नहीं पाते
बुनियादी अर्थों का बोझ

छूते ही बिखर जाते हैं
बच रहती है
सड़ी मिट्टी की धुमैली गंध
बेजान कीड़ों से पंखझरे अर्थ

शब्द
चरित्रहीन हो जाते हैं
किसी किसी मौसम में
ढीठ और उजड्ड

ऐसे में उनसे मुँह चुराकर
निकल जाना ही बेहतर
अपनी इज़्ज़त बचानी हो
तो किसी किसी मौसम में
शब्दों के मुँह लगने की बजाय
चुप मार जाना ही बेहतर

कम से कम जब तक
मौसम का मिजाज़ न बदले

 

3. धरती के चार चिंतक

बहुत साल पहले की बात है
धरती के चार चिंतक
चिंता में डूबे
कि डूब जाएगी धरती
आबादी के बोझ से

ख़ूबसूरत धरती की
ख़ूबसूरत सुविधाएँ
बदसूरत लोगों की वजह से
जाएँ रसातल को
ऐसा होने नहीं देंगे
प्यारी सी धरती को
गंदे-घिनौनों को ढोने नहीं देंगे

एक ने सुझाया था
मैं महामारी ला सकता हूँ
दूजे ने कहा
मैं दवाई बना सकता हूँ
पर वह असर नहीं करेगी
आबादी ख़ुशी ख़ुशी
बेमौत मरेगी

तीजा चतुर था
मैं ऐसा नाटक दिखाऊँगा
मानो कितनी फ़िक्र है हमें
इन मरनेवालों की
सौ घिनौनों के साथ
दो अच्छे भी मार देंगे
तो भरोसा बना रहेगा
लोग ख़ूब साथ देंगे

चौथा फ़रमाया
पूरी दुनिया को जोड़ेंगे
महामारी के विरुद्ध
पर करेंगे कुछ नहीं
आपदा को अवसर बनाएँगे
आम दिनों से ज्यादा कमाएँगे

वैसे भी मारने वाला
और बचाने वाला तो
ऊपरवाला ही है
ऊपरवाले का
भव्य घर बनाएँगे
यह देख लोग
ख़ुशी ख़ुशी मर जाएँगे

पहला बोला
इतना डरा देंगे लोगों को
कि हो जाएँगे अंधे
किसीको दिखाई न देंगे
हमारे काले धंधे

इस तरह
चारों चतुर चिंतकों ने
चली ऐसी चाल
सुधर गया धरती का हाल
उतर गया गंदगी का बोझ
भले थोड़ा ही सही
ऐसी सुंदर कहानी
पहले किसी ने न कही
कहो कैसी रही!

(*यह कथा पूरी तरह से काल्पनिक है। यदि किसी घटना या व्यक्ति से साम्य नज़र आए तो इसे निरा संयोग समझा जाए।)

 

4.आइए !

राष्ट्र संकट में है
उबरने के लिए
बलिदान चाहिए
आइए राष्ट्र के लिए
बलिदान हों!

राष्ट्र को धन दें
राष्ट्र को तन दें
राष्ट्र को मन दें
राष्ट्र को जीवन दें!

राष्ट्र के लिए
आइए!
हम सब एक साथ
दवा के अभाव में मरें
इस तरह कि
अंतिम संस्कार भी न हो

हम टीके के जाल में
छटपटाएँ
अव्यवस्था में पटपटाएँ
और कभी झुलस कर मरें
कभी हुलस कर मरें
कभी भूख से मरें
कभी बेकारी से
कभी महामारी से

मरते रहें
राष्ट्र निर्माण करते रहें
राष्ट्र की नींव में धँसें हम
हत्यारे की चाल में फँसें हम
हवा को तरसें
पानी को तरसें
पर उफ न करें

क्योंकि हमारी लाशों पर
एक महान देश बनेगा
धर्म का झंडा
आसमान तक तनेगा
और एक दिन बचा हुआ देश
एक साथ गाएगा
राष्ट्रगीत

बिके हुए राष्ट्र में
भेड़िए के ख़ूँख़्वार जबड़े से
बचे हुए राष्ट्र का लोथड़ा
मरे हुए राष्ट्र के सम्मान में
विकास के गीत गाएगा

अतः
विकास के उस भावी यज्ञ में
हम सब
अपने पूरे परिवार सहित
सभी परिजनों सहित
आओ!
हवन कुंड में कूदें!

हमारी मांस के चिरायँध गंध से
हवा में ऑक्सीजन बढ़ेगा
सेंसेक्स आसमान चढ़ेगा
और राष्ट्र निर्माता
एक नया झूठ गढ़ेगा

आइए!
हम सब
झूठ की बलिवेदी पर
सत्य को हलाल करें
सत्य हमेशा
सबसे बड़ी रुकावट रहा है
किसी भी महान राष्ट्र के
नवनिर्माण में

 

5. विजेता

मैदान में जुटे
सारे पिता
स्पर्धा थी
कौन पिता अपने बच्चे को
सबसे ऊँचा उछाल पाता है

यह पिता भी गया
ढोल नगाड़ों के शोर के बीच
खिलखिलाता गर्व से
मैदान के बीचोंबीच
सीना फुलाए

दोनों हाथों में बच्चा थामे
उसकी नज़रें थीं
आसमान पर
बच्चा उछाला गया
बच्चा हँसता हुआ आ गया
पिता की मज़बूत बाहों में

बच्चे को पूरा भरोसा था
पिता उसे गिरने नहीं देगा
कि अचानक पिता ने
पूरी ताक़त लगाकर
बच्चे को उछाल दिया
आसमान की ओर

इतने ऊपर कि किसीने
सोचा भी न होगा
तमाशबीनों की निगाहें
आसमान की ऊँचाइयों पर

तालियाँ पीटता पिता
विजेता की मुद्रा में
ठहाके लगाता
नई ऊँचाइयों के नशे में
बच्चे को पकड़ना भूल गया

बाक़ी पिताओं के सिर
शर्म से झुके हुए
वे धीरे धीरे मैदान के बाहर

बचा खिलखिलाता पिता
आसमान ताकते
तमाशबीन और
ज़मीन पर लहूलुहान पड़े
मासूम बच्चे के चेहरे पर
मरा हुआ भरोसा


परिचय


हूबनाथ पांडेय
हूबनाथ पांडेय

कवि : हूबनाथ पांडेय

सम्प्रति: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
संपर्क: 9969016973
ई-मेल: hubnath@gmail.com

संवाद लेखन:

  • बाजा (बालचित्र समिति, भारत)
  • हमारी बेटी (सुरेश प्रोडक्शन)
  • अंतर्ध्वनि (ए.के. बौर प्रोडक्शन)

प्रकाशित रचनाएं:

  • कौए (कविताएँ)
  • लोअर परेल (कविताएँ)
  • मिट्टी (कविताएँ)
  • ललित निबंध: विधा की बात
  • ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय
  • सिनेमा समाज साहित्य
  • कथा पटकथा संवाद
  • समांतर सिनेमा

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