महिला दिवस (कविता) – हूबनाथ पांडेय

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प्रिय ईश्वर!

भारी चूक हो गई तुमसे

पहले बनाया पुरुष
उसे बढ़ने दिया
बिना संस्कार
बिना भावना संवेदना
पशुवत

फिर बनाई स्त्री
दूर हो सके उदासी
पुरुष की
मन बहले उसका
इसलिए बनाई स्त्री

वह पुरुष जनमा
बिना किसी दर्द या वेदना
बस खेल खेल में
इसलिए
नहीं हुआ उसे एहसास
दर्द या वेदना का

तुम भी तो परे हो
पीड़ा और यातना से
तुमने भी कब सही
तकलीफ़ सृजन की
कष्ट देह की और मन की

जैसे तुम
वैसा तुम्हारा बनाया पुरुष
खेल से जनमा
खेल ही करता रहा
उसे लीला कहता रहा

तुम्हारी सृष्टि
खेल बन गई ईश्वर
कभी तुम्हारा
कभी तुम्हारे बनाए पुरुष का
तुम दोनों मिलकर
खेलते रहे
पूरी कायनात से

तुम्हारे खेल का दंड
हम सब भोग रहे हैं
हमें बहुत तकलीफ़ है
ईश्वर
तुम्हारे खेल से
खेल के नियम से

काश!
तुम पहले बनाते स्त्री
और स्त्री को बनाने देते
यह दुनिया
सृजन का कष्ट सहकर
तो कष्ट किसी को न होता

स्त्री के संस्कार में पला
पशु नहीं होता
पुरुष
उसमें परुषता नहीं
करुणा होती
अहंकार नहीं
ममता होती

बरसात से पहले ही
पेड़ उगाकर
उसे ठूँठ बना दिया तुमने
ईश्वर!
पर दोष तुम्हारा भी नहीं

तुम भी तो
पुरुष ही थे
तुम्हें क्या पता कि
सृजन का धर्म क्या होता है
सृजन का मर्म क्या होता है
सृजन का दर्द क्या होता है

तुम तो बस कह देते हो
उजाला हो जाए
और रौशनी आ जाती है
जादूगर बनकर नहीं
मां बनकर पैदा किया होता
पुरुष को
तो तुम्हारी बनाई दुनिया
इतनी बदसूरत नहीं होती
ईश्वर!

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