‘तूफान’ सपनों के उड़ान भरने की कहानी है। चाहे कितने ही गम और गुरबतों की आंधी-तूफान या बवंडर जिंदगी में क्यों न आते रहें? अतीत और पूर्वाग्रहों को ढोने के क्या अंजाम हो सकते हैं, इसमें उसकी बानगी है, भले आप सही ही क्यों न हों। यहां बॉक्सिंग के बैकड्रॉप में कथित लव जेहाद पर एक चोट भी है। एक ऐसी रूमानी दुनिया का ख्याल है, जो असल जिंदगी में बिरले होते हैं।
राकेश ओमप्रकाश मेहरा और फरहान की जोड़ी ने ‘भाग मिल्खा भाग’ में असर पैदा किया था। हाल ही में मिल्खा सिंह गुजर भी गए थे। यहां ‘तूफान’ में उस असर को संपूर्णता में दुहराने में वो दोनों जरा चूक गए हैं।
ऐसी है फिल्म की कहानी
दरअसल, फिल्म का बड़ा हिस्सा बॉक्सिंग की ट्रेनिंग और उसकी दुनिया दिखाने में चला गया है। डोंगरी का लावारिस अज्जू भाई (फरहान अख्तर) वहां के डॉन जाफर (विजय राज) के एहसानों तले दबा है। जाफर के लिए वसूली का काम करता है। बॉक्सिंग का शौक है। एक दिन उसकी जिंदगी में डॉक्टर अनन्या (मृणाल ठाकुर) आती है। मकसद विहीन अज्जू भाई की जिंदगी लक्ष्य से लैस हो जाती है। दिग्गज कोच नारायण प्रभु (परेश रावल) से बॉक्सिंग में ट्रेनिंग लेता है।
उसकी जिंदगी में अच्छे दिन आ ही रहे होते हैं कि अचानक लव जेहाद का मसला सामने आ जाता है। उसकी जिंदगी में ‘तूफान’ आ जाता है। कुल मिलाकर कहानी इतनी सी है। इनके इर्द-गिर्द ना बेहतरीन किरदार गढ़े गए हैं ना दिलचस्प मोड़ लाए गए हैं। इसके चलते फिल्म ठहर सी जाती है। किरदारों की गतिविधियां मल्टीलेयर्ड नहीं हो पाती हैं।
इधर हुई तूफान लाने में चूक
शायद इसकी वजह फोकस है। राइटर-डायरेक्टर की टीम ने बॉक्सिंग के जरिए अज्जू भाई के बॉक्सर अजीज अली में तब्दीली में ज्यादा वक्त गंवा दिया। भला हो इन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों का, जिन्होंने अपनी अदाकारी से कहानी को रोचक बनाए रखा है। फरहान, मृणाल, परेश रावल ने सधी हुई परफॉर्मेंस दी है, मगर उन्हें उम्दा राइटिंग का साथ नहीं मिल पाया है। बॉक्सिंग के ज्यादातर मैचेज एकतरफा हैं। फील गुड से भरे हैं। वह टेंशन बिल्ट अप नहीं हो पाया है, जैसा ‘लगान’ या फिर ‘चक दे इंडिया’ में हुआ था।
- कुछेक मौकों पर एकाध डायलॉग ठीक बन पड़े हैं। मिसाल के तौर पर जब डॉक्टर अनन्या अपने पिता से कहती हैं- “”जिंदगी जीते-जीते कोई जुड़ गया तो ठीक है। वरना जीवन कोई होटल नहीं।”
- नारायण प्रभु के तौर पर परेश रावल के खाते में रोचक डायलॉग आए हैं। मसलन- ’डिफेंस ही तेरा वार है। कहां से आया है, वो जाने दे, कहां जाएगा, वह सोचिए’।
- अज्जू के दोस्त बने हुसैन दलाल भी मुंबइया टपोरी लैंग्वेंज में लाख टके की बातें कर जाते हैं। जैसे, ‘हमारा फाड़ने का काम है। उसका सीने का। बेहतर है प्यार के लफड़े में मत पड़।‘
अपने ही बेंचमार्क को नहीं छू पाए राकेश ओमप्रकाश
राकेश ओमप्रकाश मेहरा खुद दिलचस्प ट्विस्ट एंड टर्न से भरे स्क्रीनप्ले लिखने में माहिर रहे हैं। ‘रंग दे बसंती’ उसकी मिसाल है। यहां वे अपने ही बेंचमार्क को नहीं छू पाए हैं। फरहान अख्तर की मेहनत, उनका ट्रांसफॉरमेशन, लहजा सब नजर आता है। उन्होंने अज्जू को जिया है। मृणाल ने बखूबी कॉम्प्लिमेंट किया है। परेश रावल ने फिर सरप्राइज किया है। गाने अर्थपूर्ण और कहानी को गति प्रदान करते हैं। पर ओवर ऑल एक कसक महसूस होती है। काश उस पर काम किया गया होता। इसका टाइइटल तूफान है, मगर यह तूफानी होने से रह जाता है।